Thursday, July 1, 2010

एक पुरानी कविता - दीप बन जले हम

आओ दीप बन जले हम
तम को संपूर्ण शक्ति भर
एक हो छले हम
आओ दीप बन जले हम !

श्रृंखला बद्ध हो एक कतार में
आँधियों के तीव्र वार में,
वृष्टि , तूफानों के संसार में
दर्प अंधियारे का दले हम
आओ दीप बन जले हम !

झोपड़ी में या महलों में
निर्बल में या सबलों में
आत्मा लेकर कर कमलों में
नव विद्युत् बन चले हम
आओ दीप बन जले हम !

पाप जलेगा पुन्य मिलेगा
ब्रह्माण्ड का शून्य मिलेगा
सद्कर्मो का पुन्य मिलेगा
पवित्र श्रम से पले हम
आओ दीप बन जले हम !

उलूक चढ़ कर देवी लक्ष्मी
आकर देखे रात में रश्मि
मुदित वो फिर कैसी कमी
देवी वर से फूले फले हम
आओ दीप बन जले हम !


-- श्याम प्रकाश झा

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