Thursday, October 10, 2013

भ्रम की चादर

तुम लड़ कर बढे
या
बढ़ कर लड़े ;
लड़े तो तुम थे
और यही सत्य है !
तुम भिड़ कर हटे
या
हट कर भिड़े;
भिड़े तो तुम थे
और यही तथ्य है !
तुम गिर कर संभले
या
संभल कर गिरे ;
गिरे तो तुम थे
और यही सत्य है !
भ्रम की चादर
ओढोगे
कब तक मित्र ?

वार्तालाप

अरसे बाद
अपने आप से बात की;
अरे हाँ.....,
उम्‍मीद भी साथ थी!
कहा,
कहाँ खो गये हो?
गहरी नीँद मेँ सो रहे हो?
पहले तो लपक कर,
तारे तोड़ लाते थे;
कभी भटके घाट को
नदी तक छोड़ आते थे!

काल्पनिक वास्तविकता
और वास्तविक कल्पना
के बीच का अंतर
तुम्हें ख़ूब था पता ;
गाहे बिगाहे चाहे
बोलते नहीं थे अलबत्ता ।

अब कहाँ गुम हो?
क्‍या यह वही "तुम" हो?
.....................
.....................
कोलाहल युक्‍त शांति,
यथार्थ या भ्रांति?
पीड़ा दर्दविहीन
तीव्र? क्षीण?
थोपा हुआ अंतर्द्‍वँद?
तेज.... मंद?
.....................
.....................
मैँ ने विदा ली।
उम्मीद नहीँ साथ थी!