Thursday, December 28, 2017

तीन कहानियाँ

(सत्तर के दशक में...... )
एक बैल 


ये कहानी पुरानी है मगर प्रेमचंद के झूरी के दो बैलो जितनी पुरानी भी नहीं। बस बैलों के नाम ही मिलते जुलते हैं।

बुद्धिचंद तेली जिसे पूरे गांव और आस पास के ५ कोस के गांव वाले बुधिया बुलाते थे, अपने छोटे भाई सुधिचंद यानि सुधिया   के साथ पुश्तैनी तेल के व्यापार को चलाता था।  उसके पास वर्षों पुराना खानदानी कोल्हू था जिसके सहारे पूरा गांव और आस पास के कई गांव के तेल की जरूरतों की पूर्ति होती थी। व्यवसाय में ज्यादा पैसे नहीं थे, मगर दोनों भाई  खूब मेहनत करके जैसे तैसे अपनी जिंदगी चला रहे थे। अपनी आर्थिक व्यवस्था को बेहतर बनाने की सोच दोनों के मन में हमेशा ही सजग रहती थी। दोनों भाई मेहनती थे, बुधिया समझ बूझ में अच्छा था और सुधिया उसका अंध अनुगामी। दोनों में अच्छा ताल मेल और प्रेम भाव था, सामान्यतः प्यार से रहते थे, एक दूसरे की मदद करते थे और अक्सर खूब लड़ने झगड़ने के बावजूद शाम में देसी दारू के कुछ घूँट हलक में उतरते ही भाइयों का प्रेम भाव फिर से कुलांचे मारने लगता था। कदाचित ये रोजाना का ही किस्सा था।

बुधिया का कोल्हू पारम्परिक और बड़े आकर का था। दो बैल घानी को समुचित तरीके से चलाने में लगते थे। एकबार जब बुधिया किसी काम से नजदीक के शहर गया तो उसने मशीन से तेल निकालने वाला कोल्हू देखा। मशीन बिजली से चलती थी और उत्पादन कई गुना ज्यादा था। बैलों को पालने का और कोल्हू पर निरंतर हांकने का कोई सरदर्द भी नहीं था सो अलग। बुधिया को बात भा गयी। उसके गांव में बिजली के खंभे आ चुके थे।  बुधिया को विश्वास था की खम्भों के सहारे लटके उन बिजली के तारों में जल्द ही बिजली दौड़ेगी और फिर अगर उसने किसी तरह यह मशीन खरीद लिया तो सरपट दौड़ेगा उसके किस्मत का घोड़ा। मगर उसके लिए पहले उसे इस नए ज़माने की मशीन की जरुरत थी। उसने मशीन की कीमत पता की जो हाथों हाथ खरीद लेना उसके वश के बाहर की बात थी। मन ही मन उसने ठान लिया की थोड़े-थोड़े पैसे बचा कर वो निकट भविष्य में मशीन जरूर खरीदेगा। समस्या यह थी की वर्त्तमान व्यवसाय से इतने पैसे कैसे बचाये जाएँ।  खैर बुधिया ने वापिस आकर खूब सोच विचार कर बचत की एक योजना बनाई और अपनी योजना छोटे भाई को बताई जिसने हमेशा की तरह हामी भरी और दोनों ही खूब मेहनत कर के पैसे जोड़ने में लग गए।

गरीबों की योजना में जोखिमो की गणना अक्सरहां छूट जाती है। कल्पनाओं के महल में नीव से लेकर दीवार, दरवाजा खिड़कियाँ और छत तक सोने की ही होती है। चमकती हुयी। मगर वास्तविकता के ढीठ अतिथि को सपनों की दुनिया में दस्तक तो देनी ही थी। वैसा ही हुआ। बुधिया का एक बैल बीमार रहने लगा। दरअसल उसकी अवस्था भी ज्यादा थी। बुधिया ने सोचा अभी कुछ दिन तो किसी तरह काम चलता रहेगा पर नया बैल जल्द ही खरीदना होगा नहीं तो रोज-रोज के व्यवसाय पर असर आएगा। थोड़े दिनों बाद ही बगल के गांव में पशु मेला लगने वाला था। तय हुआ की एक तगड़े जवान बैल की खरीदारी वहीँ से की जाये।  बुधिया ने थोड़े पैसे और जुड़ाये, बाकि इधर उधर से उधार लिया और एक नया बैल खरीदने पशु मेला गया। वहां मेले में बुधिया के अंदाजे से पशु महंगे मिल रहे थे। या तो बैल पसंद नहीं आता या फिर आ गया तो कीमत इतनी ज्यादा की बुधिया की जेब ही जवाब दे जाये। दिन भर मेले में फिरते फिरते बेचारे का मुंह सूख गया मगर बैल नहीं खरीद पाया। मेले के भीड़ में और कीमतों के ज्वार भाटे में शायद वो अपना होश हवास खो चुका था। बौखलाहट में मन ही मन सरकार, व्यवस्था, गांव, विक्रेताओं और अपने भाई सुधिया को भरछक गाली दिए जा रहा था। थक हार के दोपहर में सुस्ताने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठा। घर से लाये खाने की पोटली खोली और खाने लगा। कहीं से लोटा भर पानी अलग ले आया था। एक घूँट पानी गले में और एक कौर खाना मुंह में जाते ही जैसे जान को जान आयी। शनैः शनैः लुप्त हुई उसकी सोच समझ वापिस आती प्रतीत हुयी।  उसने सोचा पहले जलपान किया जाये फिर कोई जुगत लगाऊंगा। अभी खाने का आखिरी निवाला हलक से उतरा भी नहीं था कि थोड़ी दूर खड़े एक मरियल बछड़े पर उसकी नजर पड़ी। प्रतीत होता था कि उसी का मोलभाव चल रहा था। खरीदने वाले का तर्क था कि बछड़े की दशा बहुत गंभीर है ऐसे में बोली लगा कर वह बेचने वाले पर मेहरबानी कर रहा है और उसे उसने जो कुछ भी मूल्य देने का प्रस्ताव दिया है वह ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। बेचने वाले का तर्क था कि यह बछड़ा भले ही कमजोर और बीमार है मगर अच्छी नस्ल का है। कालांतर में अगर ठीक से रख रखाव हुआ तो तगड़ा बैल बनेगा। इसीलिए इसका मूल्य उचित तरीके से लगाना चाहिए। अंततः सौदा नहीं हो सका। थोड़ी देर की मोल भाव के बाद ग्राहक ने बछड़े वाले को अवांछित ज्ञान देते हुए विदा लिया। इधर बुधिया का जलपान ख़त्म हो चुका था और वह अभी भी बछड़े को ही देख रहा था। बछड़े की नस्ल जरूर अच्छी थी मगर वर्तमान दशा सही में काफी नाजुक थी। अब बुधिया के मन में एक ऐसी योजना मूर्तरूप ले रही थी जिसमे उसे थोड़ा अतिरिक्त मेहनत तो दिख रहा था पर मिला जुला कर अच्छा फायदा नजर आ रहा था। उसने सोचा अगर वह यह बछड़ा कम मूल्य में खरीद ले तो थोड़े पैसे भी बच जायेंगे और फिर अच्छी देखभाल करने से ये बछड़ा बड़ा होकर मजबूत बैल बन जायेगा। इस योजना में भले ही समय और धैर्य की जरुरत होगी मगर अंततः परिणाम फायदेमंद होगा। जैसे ही वर्त्तमान ग्राहक ने बिना सौदा किये विदा ली, बुधिया ने अपना सामान समेटते हुए बछड़े के मालिक की ओर रुख किया। थोड़ा मोलभाव करके बुधिया ने उस बीमार और कमजोर बछड़े को सस्ते दाम में खरीद लिया और सीधा अपने गांव का रास्ता अख्तियार किया।

गांव के बाहर पगडंडी पर एक नीम का पेड़ है। उस पेड़ के इर्द गिर्द गांव के बच्चे साइकिल के बेकार परे परस्कृत टायर को हाथ या डंडे के सहारे दौड़ाते हुए दिन भर हुड़दंग करते हैं और गांव से आने जाने वाले लोगों का खबर गांव के हर एक घर में पहुँचाने का पुण्य काम भी बिना हारे थके, बिना किसी लोभ के औचक तरीके से भी करते हैं| उनमे से एक लड़के ने जब बुधिया को एक मरियल बछड़े के साथ धीरे धीरे आते देखा तो सुधिया को ख़बर पहुँचाना अपना कर्तव्य समझ उसकी घर की तरफ भागा। बुधिया को पता था उसके घर पहुँचने तक सुधिया को पता चल चुका होगा की वह बैल की जगह एक बीमार से दिख रहे बछड़े को खरीद लाया है। एक जबरदस्त वाकयुद्ध या हाथापाई तक भी निश्चित था। बुधिया धीरे धीरे घर की तरफ बढ़ते हुए लड़ाई की रणनीति मन ही मन बनाने लगा। आशंका के अनुसार जैसे ही बुधिया अपने घर पहुंचा और बछड़े को बगल में बांध कर चापाकल चला कर ठंढे पानी से हाथ मुंह धोने लगा, सुधिया अंदर से बातों के व्यंग्यवाण और उलाहनों के साथ प्रस्तुत हुआ। बुधिया तय कर चुका था कि आज किसी भी बहस का जवाब अपने रौद्र रूप से देना है। उसने वही किया। मेले में लगी हुई दोपहर की गर्मी दिमाग पर ऐसे ही चढ़ कर तांडव कर रही थी।  उसका रौद्र रूप देख कर मन मारते हुए सुधिया ने हार मानने में ही अपनी बेहतरी समझी और उसकी बातें नरम पर गयी। खैर जब रात के खाने के बाद बुधिया ने हाट का पूरा हाल, पैसे और मूल्य के अंतर और अपने निर्णय के पीछे चली गणना और सोच के साथ हाट से लाये देसी दारू का पिटारा खोला तो सुधिया थोड़ा निश्चिन्त हुआ। खाने और मदिरा के दौर पर दोनों ने मिलकर तय की हुयी योजना को अमलीजामा पहनाने पर देर रात तक विस्तार में विचार विमर्श किया।

अगले दिन से ही पूरी यतन के साथ बछड़े का ध्यान रखा जाने लगा। दोनों भाई उसके खान-पान, सफाई से लेकर हर तरह की सुविधा का उचित व्यवस्था करते। बछड़ा था तो अच्छी नस्ल का ही। थोड़े अच्छे रख रखाव से स्वस्थ नजर आने लगा| जल्दी ही वह दोनों भाइयों के आँखों का तारा भी बन गया। खेल खेल में कई बार सुधिया ने उसके सिंगो को पकड़ कर उसे धकेलते हुए उसके बल का अंदाजा लगाया था। उसे यकीन होने लगा कि बछड़े में दम है। बछड़े का नाम मोती रखा गया। पहले से कोल्हू में जुत रहे बैलों का नाम वीरा और हीरा था। वीरा अब थोड़े दिनों में जाने वाला था सो दोनों भाइयों ने सोचा हीरा-मोती की जोड़ी खूब जमेगी।  इधर मोती खुद को बड़ा भाग्यशाली समझ रहा था। जब यहाँ आया था तो बीमार और कमजोर था। अब उसे अंदर से ऊर्जा की अनुभूति होती। दोनों बैलों की तुलना में उसे अच्छा आहार मिलता था, सुविधाएँ अच्छी थी और काम कुछ नहीं सिवाय इधर उधर दौड़ने के और खेलने के। बस सरसों पीसने से जो हवा वातावरण में घुलती थी वह उसकी आँखों को बहुत जलती थी। मगर समय के साथ अब वह उसका भी अभ्यस्त हो चुका था। बैलों को मनुष्यों की तरह दुनिया के विविध रंग नहीं दिखते।  दिखता है बस दो रंग......  सफ़ेद और स्याह। मोती को भी ये दो ही रंगों में सारी दुनिया दिखती थी। अलबत्ता उसे सफ़ेद वास्तविक मात्रा से अनुपात में ज्यादा ही दिखता था और स्याह वास्तविकता से कम। धीरे-धीरे वह अपने आप को दोनों भाइयों का ऋणी भी समझने लगा। उसे लगता था कि बुधिया और सुधिया दोनों बड़े दयालु हैं जिन्होंने उसके लिए बहुत कष्ट उठाया है और अब उसका कर्त्तव्य है कि जितनी सेवा दोनों भाइयों ने उसकी की है उतनी ही सेवा वह उन दोनों की करे। वह इंतजार में था कि कब उसे कोल्हू में जुतने का मौका मिले और वो घानी को ऐसे दौड़ाये कि उसके मालिकों की सारी दरिद्रता अल्प समय में दूर हो जाये। दोनों बड़े बैल मोती को दिए जा रहे विशेष सुविधा से थोड़े ईर्ष्यालु हो रहे थे। मगर कर क्या सकते थे? वीरा सोचता था कि जल्द ही मोती कोल्हू पर जुतने लायक हो जाये और उसे छुटकारा मिले। उसका अंदाज था कि इसके बाद उसे कोई कम परिश्रम वाले काम में लगाया जायेगा शायद किसी बैलगाड़ी को खींचने में। जगह जगह घूमने का मौका मिलेगा और हर दिन का एक जैसा काम भी नहीं रहेगा। एक ही जगह पड़े रह कर हड्डी तुड़वाने से तो काफी लुभावना था बैलगाड़ी खींचना।  हीरा को पता था की अब कुछ और साल उसे कोल्हू पर जुतना तो है ही। उसे मोती के विशेष सुविधाओं पर एतराज तो था मगर उसे लगता था की वीरा के जाते ही वह उनका प्रमुख बैल बन जायेगा और फिर उसकी तूती बोलेगी।

कालांतर में अच्छे आहार, व्यवहार और समुचित देख रेख में कल का मरियल और बीमार दीखता बछड़ा एक मजबूत बैल बन गया।

आखिरकार वह दिन भी आ ही गया जब पहली बार मोती को कोल्हू पर थोड़ी देर जोतने का निर्णय बुधिया ने लिया। हीरा को  मोती के साथ  कोल्हू में जोता गया। वीरा को अल्पावधि के लिए विश्राम मिला। जैसे ही मोती कोल्हू पर जुए उठा कर चला, वह आवेश में अत्यधिक शक्ति से घानी को घूमाने लगा और परिणाम स्वरुप तेल अधिक मात्रा में निकलने लगा। हीरा के साथ साथ बुधिया और सुधिया अचंभित होकर  देखते ही रह गए। दोनों भाई ख़ुशी से झूम उठे। उन्हें उनका सपना पूरा होता बहुत करीब दिख रहा था।  हीरा भी हतप्रभ था। शायद वो मोती को कहना चाहता था कि बैलों के लिए कोल्हू पर इस तरह की शुरुआत ठीक नहीं है और ऐसे में निश्चित रूप से बस थोड़े दिनों में ही वह अपनी सारी शक्ति खो देगा। उसके निजी अनुभव के अनुसार अगर लम्बे समय तक कोल्हू पर टिकना है तो शक्ति बचा बचा कर व्यय करनी चाहिए। उसे लगा मोती अपने मालिकों की उम्मीदों को बहुत बढ़ा रहा है जो भविष्य में उसके लिए संकट का कारण बन सकता है। इधर जुगाली करता वीरा की ख़ुशी का ठिकाना न था। उसे लग रहा था कि उसकी आज़ादी के दिन अब ज्यादा दूर नहीं हैं। खैर थोड़ी देर ख़ुशी मनाने के बाद बुधिया ने छोटे भाई को मोती को कोल्हू से अलग करने का आदेश दिया। आज परिक्षण के लिए इतना काफी था।  पुनः वीरा को हीरा के साथ कोल्हू के काम पर लगाया गया। शाम में हाट से लौटते वक़्त बुधिया मोती के लिए एक सुन्दर घंटी ले आया जिसकी आवाज बिलकुल ही अलग थी। और साथ में ले आया अंग्रेजी शराब जिसे दोनों भाइयों ने रात को छक कर पिया। आज मोती का भी विशेष खाना लगाया गया, उसके खाने में मांड के साथ छुपा कर सरसों की खली भी डाली गयी जो बैलों को बहुत पसंद आती थी। भ्राताद्वय को अपने परिश्रम का फल मिलता दिख रहा था और मशीन खरीदने का सपना पूरा होने की उम्मीद कई गुना ज्यादा बढ़ गयी थी। रात में खाने पीने के दौर के साथ बुधिया ने उँगलियों पर बढे हुए आय की गणना की और अंदाज़ लगाया कि वह कब तक जरुरत के सारे पैसे इकट्ठे कर सकते हैं।

महीने भर के अंदर वीरा को गांव के एक किसान के हाथ बेच दिया गया और मोती नियमित रूप से हीरा के साथ कोल्हू पर जुतने लगा। उसकी भरपूर जवानी, महीनों से समेटी हुयी शक्ति और जोश के साथ ऋणी होने की अनुभूति कोल्हू को नए गति में ज्यादा असरदार तरीके से चलाने लगी। परिणाम स्वरुप तेल का उत्पादन बढ़ गया। ग्राहक खुश रहते। बुधिया के पास हिसाब किताब करने के लिए भरपूर सिक्के हाथ में आने लगे, बचत बढ़ी और नोट भी जमा होने लगा। भाइयों के खाने-पीने की सुविधा बढ़ी, शाम को देसी ठर्रे की जगह नियमित रूप से विदेशी शराब ने ले लिया। मोती को सजा सवार के रखा जाता उसके सिंगो की मालिश की जाती और आहार का समुचित ध्यान रखा जाता।  मोती के विशेष रखरखाव को देखकर हीरा को कोफ़्त तो होती थी मगर बेचारा कर क्या सकता था सिवाय रम्भाने के। वहीँ मोती को लगता था की उसके मालिक बड़े भद्र हैं और मेहनत  को पहचानना जानते हैं और इसीलिए उसे थोड़ी बेहतर सुविधा उसके अच्छे काम के कारण मिलती है। ये बात अलग थी कि  कोल्हू के इर्द गिर्द अभी भी उसके आँखों में जलन बहुत होती थी। मगर उसे विश्वास था जैसे ही उसके मालिकों के पास मशीन आ जायेगा, उसको कोल्हू से मुक्ति मिल जाएगी और मुक्ति मिलेगी मालिकों के उसपर किये गए उपकार वाले ऋण से भी जो उसकी नजर में समय के साथ काफी बढ़ गए थे।

बुधिया को एक दिन किसी काम से शहर जाना पड़ा। जाने से पहले उसने सोचा क्यों ना सारी जमा पूँजी की गणना फिर से की जाये और पता किया जाये कि मशीन खरीदने के लिए और कितने पैसे जमा करने की जरुरत है। सब कुछ जोड़जाड़ कर थोड़े पैसों की कमी पर रही थी। उसकी गणना के हिसाब से हफ्ते भर में ये पैसे जमा हो जाने चाहिए थे। तबतक वह जमा की हुयी सारी राशि अग्रिम भुगतान में शहर ले जाना चाहता था। अंतिम क़िस्त हफ्ते भर बाद चुकाने की योजना थी। वहां शहर में मशीन की एजेंसी वालों ने बताया कि अगले तीन दिनों बाद  ही उनका एक आदमी बम्बई जानेवाला है और अगर सारे पैसों का इंतेज़ाम उससे पहले हो गया तो इसी दौरे में मशीन की बुकिंग हो सकती है और फिर बम्बई से मशीन आने और फिर स्थापित करते करते महीने भर का समय अलग लगेगा। अन्यथा अगर इस यात्रा में बुकिंग नहीं हो सकी तो मिला जुला कर तीन चार महीने और लग जायेगा। बुधिया की आकांक्षा अब जोर मारने लगी। उसे लगा क्यों न किसी तरह तीन दिनों में सारी  रकम जमा की जाये और वैसे भी अच्छी खासी रकम तो पहले से जमा है ही, अब दिल्ली ज्यादा दूर भी तो नहीं थी। रास्ते भर वो आगे की योजना बनाने लगा। उधार या कर्ज उसे लेना नहीं था। ये तय था कि अगले कुछ दिन कोल्हू का उत्पादन दुगुना करना होगा।  बैलों को और दोनों भाइयों को एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा।  बुधिया को अपने आप पर और मोती पर पूरा विश्वास था। गांव पहुंचते पहुंचते उसके अपने योजना को पूरी रूप रेखा दी और छोटे भाई को सब विस्तार में समझाया। सपने का महल अब रूप रेखा लेने लगा था। आनन फानन में सुधिया ने गांव के देवता के सामने एक छोटी मनौती की भी घोषणा कर डाली। रात को दोनों बैलों को अच्छा आहार दिया गया। सुबह जल्दी ही कोल्हू पर बैलों को जोता गया। मोती दोनों भाइयों के वार्तालाप को सुन कर ये समझ चुका था कि अभी थोड़े दिन जम कर मेहनत करनी है। हीरा को भी आने वाले दिनों की मेहनत का आभाष था मगर वह थोड़ा मायूस था, हड्डियाँ जो गलने वाली थी। योजना के अनुसार बीच बीच में थोड़ा थोड़ा विश्राम देकर दोनों बैल कोल्हू पर लम्बी अवधि के लिए जमे रहेंगे। सो गोधूलि बेला के बाद भी कोल्हू में घानी चलती रही।  तेल का उत्पादन अन्य दिनों के मुकाबले ज्यादा हुआ। बुधिया सारा तेल बाजार में बनिए को बेच आया। रात में बैलों को सुधिया ने गर्म पानी से नहलाया और जम कर मालिश की।  खाने की भी अच्छी व्यवस्था की गयी। मंजिल एक कदम और नजदीक आ गयी थी। दोनों भाइयों के स्वर में बैलों के प्रति दुलार टपक रहा था। अभी थोड़े दिन उनके ऊपर ही आसरा था। उन्होंने दोनों बैलों को खूब पुचकारा। उनके प्रशंषा में लम्बी लम्बी बातें की। मनुष्य अपनी जिन्दगीं के स्वधारित अभाव से और जानवर अपने जन्मजात स्वाभाव से दूसरों के साथ अपने व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। बुधिया और सुधिया भी मनुज ही थे। हीरा ज्यादा थक गया था सो कुछ सुनने से पहले ही सो गया मगर मोती अपनी प्रशंषा को सुन कर भाव विभोर होता हुआ अपने आप को भाग्यवान समझ रहा था। उसने सोचा  अब जाकर उसे ऐसा मौका मिला है जब वह अपने मालिकों के सारे उपकार का बदला एक झटके में उतार  देगा। इस सुनहरे अवसर का वह पूरा फायदा उठाएगा और मालिकों का भरसक सहयोग करेगा ताकि दोनों भाइयों की माली दशा पहले से बेहतर हो जाये। पारितोषिक में कोल्हू से छुटकारा तो मिलना ही था।

दूसरे दिन दोपहर तक सब कुछ ठीक ठाक और योजना के अनुसार था मगर दोपहर के खाने के बाद हीरा उठ नहीं पाया। ऐसा लग रहा था कि उसके चौपाये शक्तिहीन हो गए हैं। उसे अंदर से ऊर्जा की कमी महसूस हो रही थी। सुधिया ने पहले लाड़ प्यार से फिर हुड़की देकर और फिर डंडे के जोर पर उसे उठाने की कोशिश की मगर सफलता हाथ नहीं आयी। हीरा जमीन पर बैठे बैठे बस रम्भाता रह गया।  बुधिया बाजार गया हुआ था।  सुधिया की मंद बुद्धि में आगे क्या किया जाये इसके लिए कोई योजना नहीं थी। उसने सोचा बुधिया वापिस आये तो कुछ जुगत लगाए। तब तक बस अपनी तरफ से जो कर सकता था वह उसी में लग गया। ऐसे यतन करते करते अच्छा खासा समय निकल गया और सूरज आकाश की ऊंचाइयों से नीचे उतरने लगा। आखिरकार बुधिया बाजार के सारे काम निपटा कर वापिस लौटा और कोल्हू को ठप देखकर अचंभित रह गया। सुधिया ने उसे स्थिति से अवगत कराया। काफी सोच विचार कर दोनों भाइयों ने मोती को अकेले कोल्हू पर जोतने का निर्णय लिया।  मोती खुश था।  उसे अपने यौवन और ऊर्जा पर पूरा विश्वास था और वह जैसे ऐसे अवसर की तलाश में था। खैर देर से सही मगर कोल्हू पर सरसों का तेल निकलना फिर से शुरू हो गया। मोती पूरे दमखम से कोल्हू को अकेले चला रहा था। बुधिया का अंदाज था कि शायद बीते दिन ज्यादा परिश्रम के कारण हीरा थक गया है और कल तक भला चंगा होकर वह जरूर कोल्हू में जुतने को तैयार हो जायेगा। आज कोल्हू और देर तक चालू रहा। मोती अकेला घानी पर लगा रहा। रात में दोनों भाइयों ने उसकी खूब सेवा की। मोती की जी भर कर प्रशंषा की गयी। हीरा को उलहना दी गयी और अकर्मण्य घोषित किया गया। घडी घड़ी सुधिया उसे मारने दौड़ता मगर बुधिया उसे रोक लेता था। मोती थक कर चूर था। आज ज्यादा मेहनत के बाद उसका भी अंग अंग टूट रहा था। उसे भी हीरा पर गुस्सा आ रहा था। हीरा भाइयों के व्यवहार से आहत था मगर अपने स्वाभाव के अनुसार चुप था।  इधर बुधिया आज के उत्पादन के हिसाब से आमदनी की गणना कर रहा था। आज का दिन अच्छा नहीं गया था।  उसे आशंका थी की अगर कल भी यही हाल होगा तो जरुरत के पैसे कम पड़ेंगे। दिल्ली थोड़ी दूर नजर आने लगी थी।

तीसरा दिन फैसले का दिन था। लक्ष्य अत्यंत कठिन था मगर दोनों भाइयों को अपने बैलों  के दमखम पर पूरा विश्वास था। उनकी आशा थी कि हीरा भी आज स्वस्थ होकर फिर से कोल्हू पर आ जायेगा और मोती तो स्वस्थ था ही। चुनौती बड़ी थी मगर लक्ष्य को पाने की बेकरारी ने दोनों भाइयों के संयम को बाँध रखा था। समय का फेर देखिये, आशा के विपरीत हीरा सुबह से ही बिल्कुल कमजोर और बीमार दिख रहा था। दोनों भाई उसकी हालत को देख कर ज्यादा खिसिया गए। उन्हें मंज़िल हाथ से निकलती प्रतीत हुई। मगर मोती तैयार था, चुस्त दुरुस्त और कोल्हू पर जुतने को व्याकुल। बुधिया की थोड़ी आस बढ़ी। बस एक ही और दिन की तो बात है।  फिर आगे कुछ करने की जरुरत ही नहीं थी। बुधिया ने सुधिया को अकेले मोती को कोल्हू पर हाँकने का आदेश दिया और आज खुद भी घर पर रुका ताकि शाम को जितना भी तेल इकठ्ठा हो सके उसे लेकर बनिए को बेच सके। जुए पर बंधा जा रहा मोती निश्चिंत था। उसे पूरा विश्वास था की आज दिन भर वह अकेला कोल्हू के जुआ को खींच पायेगा और दोनों भाइयों के लक्ष्य को पूरा करने में मदद करेगा। दोनों भाइयों ने उसे प्यार से पुचकारा, हलकी थपकियाँ दी और कोल्हू का कामकाज सुचारु रूप से चालू हो गया। अब पूरा दारोमदार बस मोती पर था। हीरा जैसे दूर से अपने आप को दोषी समझ बैठा था और आत्मग्लानि में डूबा जा रहा था।

कहा गया है "जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर जाता है, उसका निश्चित भी ख़त्म हो जाता है और अनिश्चित तो पहले से ही अनिश्चित है।" इस उपदेश का तब तक महत्व नहीं है जब तक आप अपनी जिंदगी के निश्चित और अनिश्चित की व्याख्या खुद न कर पाए या क्या निश्चित है और क्या अनिश्चित है इसका भेद न कर पाए। जल्दी धनवान बनने के लोभ ने वैसे भी दोनों भाइयों के अकल पर पर्दा डाल ही दिया था सो उनके लिए निश्चित और अनिश्चित का अंतर करना मुश्किल ही था। आशंका को सच साबित होते देर न लगी। दोपहर में मोती को अचानक अंदर से कमजोरी सी महसूस हुई और उसके पैर ठिठक गए। सुधिया ने उसे कोल्हू से अलग करके कुछ खाने और पीने का इंतज़ाम किया। साथ में बुधिया बांस के पंखे से हवा भी झलने लगा। उसने सोचा शायद थोड़े विश्राम से और खाने पीने से मोती की ताकत वापिस आ जाये। मोती भी भौचक था। उसे अंदाजा ही नहीं लगा कि क्यों अचानक वह बिलकुल शक्तिहीन हो गया। ऐसा लगा जैसे उसके पैरों में ताकत ही नहीं बची। भोजन के तदुपरांत दोनों भाइयों ने पहले उसे पुचकारा, उसके प्रशंशा में कसीदे पढ़े , उसपर किये गए सारे रखरखाव, खर्चे और उपकार की कहानी कही  अपनी माली हालत का रोना रोया और प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उसे बताया की आज के दिन मोती को कृतज्ञ बन कर अपने ऊपर चढ़े सारे कर्ज को उतारना ही चाहिए। जोश जोश में सुधिया ने प्रतियोगिता की भावना लाने के लिए हीरा की प्रशंषा में भूतकाल से सम्बन्धित  मनगढंत कहानियाँ भी बना डाली और मोती को सुना डाला। लक्ष्य बस एक था "कैसे भी मोती जोश में आकर कोल्हू को फिर से सुचारु रूप से चलाये"। दोनों भाइयों की बातें सुनकर मोती सचमुच आवेश में आ चुका था।  उसे अपने ऊपर खीझ भी आ रहा था और अपने आप से दोषग्रस्त था।  उसने जी जान से उठने की कोशिश की मगर भाग्य ने कर्म का साथ नहीं दिया। मोती कातर नजरों से अपने मालिकों को देखने लगा। उसे लग रहा था कि ऐन मौके पर उसने अपने मालिकों के साथ विश्वासघात किया है  और आज मुंह तक दिखाने के काबिल नहीं रहा। घंटे दो घंटे तक लगातार कोशिश करने के बाद भी दोनों भाई किसी भी बैल को उठा नहीं पाए। कोल्हू का कामकाज पूर्ण रूप से ठप पड़ गया। दिल्ली अब दूर ही दिखने लगी। मायूसी का माहौल व्याप्त हो गया। उन्हें कम से कम मोती से इस तरह की आशा कतई नहीं थी। असफलता की अनुभूति ने दोनों भाइयों को झकझोर दिया। महीनो से बनायीं गयी योजना और उसपर परिश्रम भरा कार्यान्वयन घंटे भर में कम प्रतीत होने लगा। सपनों का महल ताश की पत्तों की तरह बिखर गया। बुधिया ज्यादा समझदार था। मायूसी को पीता हुआ उसने सुधिया को ढाढ़स बँधाया। उसे समझाया थोड़ी देर ही सही मगर जल्दी ही वह अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेंगे। शाम को बुधिया, जितना तेल इकट्ठा हुआ था उसे लेकर बाजार में बेचने चला गया। सुधिया ने रोजमर्रे के काम के बाद थोड़ी देर सुस्ताने की कोशिश की।  घर में मायूसी का माहौल था। लालटेन की धीमी रौशनी में बैलों को साधारण किस्म का खाना दिया गया। दोनों भाई रोज की तरह खाने के साथ देसी ठर्रे का पान करने बैठे। मायूसी के माहौल में विदेशी चमकीली शराब की जगह देसी ठर्रे ने ले ली थी। मातम मनाने का इससे उम्दा तरीका भाईयों को कुछ सूझा नहीं। हमेशा की तरह नशे के सुरूर के साथ दोनों भाइयों का ज्ञान बढ़ता ही जा रहा था और बढ़ती जा रही थी विश्लेषण की क्षमता। विचार विमर्श का विषय बीते दो दिन की घटना थी। दोनों ने जम कर हीरा मोती की आलोचना की। मोती से उम्मीदें ज्यादा थी सो दोनों भाइयों को उसकी विफलता पर ज्यादा रोष आ रहा था। अतः गालियों और निन्दा का ज्यादा हिस्सा मोती के नाम आ रहा था। सुधिया ने महीनों पहले मोती को खरीदने के बुधिया के निर्णय पर ही प्रश्न उठा दिया। बुधिया ज्यादा खिसिया गया मगर उसके पास भाई के प्रश्नों का आज  कोई जवाब नहीं था। दूर बैठे दोनों बैल चुपचाप सुन रहे थे। अचानक बातों बातों में दोनों भाई तैश में आ गए और बंधे बैलों को लतियाने लगे। मदहोश तो दोनों थे ही उस पर विफलता के टीस ने गुस्से को चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। सही गलत के बीच की रेखा मलिन हुयी जा रही थी। बैल पीड़ा से रम्भा रहे थे। आनन फानन में सुधिया दौड़ के एक मोटा डंडा ले आया और मोती को बेतहाशा पीटने लगा। गालियों का बौछार बिना रुके जारी था। उसे अहमक, कामचोर, नमकहराम, अकर्मण्य, कृतघ्न जैसे कितने ही उपमा उपमेय से सम्बोधित करके उसकी पिटाई की गयी। दर्द से बिलबिलाते मोती को शब्दों की चोट ज्यादा असहनीय लग रही थी। आज उसे कोल्हू के जुए से ज्यादा भारी, लोभ में सराबोर उम्मीद के जुए लग रहे थे। बहते आसुँओ के साथ उसने धीरे से अपनी आँखे खोली। मलिन लालटेन की रौशनी में अब उसे हर जगह स्याह ही नजर आ रहा था। ठेस मनुष्यों को या जानवरों को और सामान्यतया समझ लीजिये सभी जड़ या चेतनों को एक ही तरह का आघात देती है। चाहे आघात ऊपरी हो या अंदुरुनी। बस तदुपरांत चोट खाये जीवों या निर्जीवों की प्रतिक्रियाएं अलग हो सकती है। उन्हीं प्रतिक्रियाओं को देख कर हम उन पर पड़े प्रभाव के सन्दर्भ में अपनी धारणाएं बना लेते हैं जो आमतौर पर गलत होती हैं। काफी देर तक मोती को पीटने के बाद दोनों भाई थक कर चूर हो गए और सोने चले गए। दर्द से कराहते दोनों बैल भी जैसे तैसे सो गए।

देर रात अचानक से मोती की आँख खुली। रात्रि किस पहर से गुजर रही थी इसका अंदाज़ा नहीं लगा।  उसका अंग-अंग डंडे की चोट से टूट रहा था। शरीर शक्तिविहीन था। उसके आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। धीरे धीरे उसके सामने अतीत की एक एक घटना घूमने लगी। आँखों के आगे का भ्रम का पर्दा हट चुका था और अब उसे अपने मालिकों पर बहुत रोष आ रहा था। अचानक पता नहीं क्या सोचकर पर उसने अपनी पूरी ताकत समेटी और बंधे खूंटे से अपनी रस्सी तोड़ डाली और घर के बाड़ को तोड़ कर बेतहाशा भागने लगा। गले में बंधी घंटी की आवाज़ गांव की गलियों में गूंजने लगी जिसे अपने घरों में सोये लोगों ने सुना मगर दोनों भाइयों को तो सुध ही नहीं था। उन्हें इस बात का भान तक नहीं था कि मोती खूंटे से छूट कर भाग गया है। दौड़ते दौड़ते मोती को पता नहीं चला कि वह कब गांव से बाहर दूर खेतों में आ चुका था। चारों तरफ हरी फसल चाँद की शीतल रौशनी में चमक रहे थे। मोती के पैर अब जवाब देने लग गए थे और वह खेत में ही गिर गया। बाहर की हवा उसे ताजी और ऊर्जादायक लग रही थी और कोल्हू से निकलने वाला आँख को जलने वाली हवा भी नहीं थी। उसे लेटे लेटे अचानक बहुत सुकून महसूस हो रहा था। खेत में हरे फसल को देखकर भी उसे खाने की इच्छा नहीं हुयी। बेजान पड़े अपने शरीर को देखते देखते उसे पता ही नहीं चला की वह कब गहरी नींद सो गया था।

सुबह पौ फटते ही कोल्हू के इर्द गिर्द पड़ोसियों की भीड़ जमा थी।  बुधिया सर पकड़े किंकर्तव्यमूढ़ बैठा था और उसके पड़ोसी आगे क्या करना चाहिए इसके लिए सलाह दे रहे थे। गांव भर और अगल बगल के खेतों में वो मोती को पहले ही ढूंढ चुके थे।सुधिया छाती पीट पीट कर रो रहा था और मोती को जली कटी सुना रहा था। अगल बगल के पड़ोसी उसके प्रलाप से सहमति दिखाते हुए भाइयों को सन्तावना दिए जा रहे थे। अचानक गलियों से मोती के घंटियों की आवाज़ आती सुनाई दी।  बुधिया झट से गली में झाँकने दौड़ा। उसके पीछे पड़ौसी उत्सुकतावश भागे। मगर गली में मोती का नामोनिशान नहीं था।  अलबत्ता गांव का एक लड़का उसकी घंटी पकड़े दौड़ा आ रहा था। सब के सब जिज्ञासु हो रहे थे। नजदीक आकर लड़के ने बताया कि  गांव के बाहर कुछ लोग ये घंटी लेकर आये और कहने लगे जिस किसी के बैल के गले ये घंटी बंधी थी वह आकर अपने मरे बैल को मेरे खेत से निकाल कर ले जाये। चील गिद्ध और कौवों की झुण्ड जमा हो रही है। बुधिया फिर से जमीन पर सर पकड़ कर बैठ गया। मनुष्य अनजाने में अपने फायदे के लिए दुनिया भर के कायदे बनाता है। फिर उन्ही कायदों के मकड़जाल में ऐसे उलझता है कि फायदे और नुकसान के बीच की रेखा पर अपनी जिंदगी भर की बटोरी हुयी सीख और अनुभव के साथ मल्ल्युद्ध करता रह जाता है। आज बुधिया उसी युद्ध में फंस चुका था। छोटे भाई सुधिया का रुदन इस बीच और तेज हो गया था। अब वह मोती के साथ साथ बुधिया को भी गाली दिए जा रहा था।