लड़की
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उम्मीदों के झरोखे से ताकती है लड़की
बाहर की सर्द हवा से काँपती है लड़की;
हिचक हिचक कर अक्सर सकुचाती हुई
अपनी हुनर को यदा कदा झाँपती है लड़की।
भाव और प्रभाव की अजब सम्भावना लिए
समाज में बने मूर्तखण्डों के बीचोबीच;
अनंत गणना वाले मापदंड से कदाचित
शून्य की ऊंचाइयों को नापती है लड़की।
सदियों पुराने व्याख्यायित बाधा दौड़ में
सरपट भागते, गिरते-उठते उसी होड़ में;
स्पर्धा की जीजिविषा हृदय में कैद किये
तेज सांसे जीत कर हाँफती है लड़की।
बहुत थोड़े जगह में थोड़ा बहुत प्रबंध कर
बनते बिगड़ते, टूटते जुड़ते सम्बन्ध पर;
पल भर मायूस, क्षण में पुलकित होकर
सृजन के उपले भी थांपती है लड़की।
- श्याम प्रकाश झा (१७ जनवरी २०१८ )